बांदा में मोहर्रम पर रामा जी के इमामबाड़े से गूँजती है भाईचारे व एकता की धुन

शाहनवाज खान शानू

बांदा-उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित केन नदी के तट पर बसा ऋषि वामदेव की तपोभूमि
बाँदा एक प्रमुख ऐतिहासिक शहर है।
यहां की केन नदी में पाया जाने वाला अनोखा शजर पत्थर जहाँ दुनियाभर में प्रसिध्द है वहीं यहां का सोहन हलवा अपने अनूठे स्वाद के लिए देशभर में मशहूर है।


ऐतिहासिक दृष्टि से जनपद बांदा का अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है। पुरातात्त्विक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक तथा औद्योगिक निगाह से बांदा की एक अलग पहचान है।
हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सद्भाव, आध्यात्मिक, वैदिक, पौराणिक शिक्षा, संस्कृति, संगीत कला, सुंदर भवन, धार्मिक मंदिर-मस्जिद, दरगाह व ऐतिहासिक दुर्ग, गौरवशाली सांस्कृतिक कला की प्राचीन धरोहर को आदिकाल से अब तक अपने आप में समेटे हुए बांदा का विशेष इतिहास रहा है।

     कुछ इस तरह खास है बाँदा का मोहर्रम

बांदा का मोहर्रम कुछ इस कदर खास है जो सदियों से हिंदू-मुस्लिम एकता का मिसाल बना हुआ है। देश में कहीं भी धार्मिक उन्माद को लेकर हिंसा फैली हो लेकिन यह शहर हमेशा से इन बुराईयों से अछूता रहा, जिसके चलते यहां कभी भी किसी भी प्रकार का दंगा-फसाद नहीं हुआ। यहां के लोगों ने कभी भी सांप्रदायिक सद्भाव पर नफ़रत की आंच नहीं आने दी। चाहे बाबरी विध्वंस के बाद देश भर में हुए दंगे हो या अन्य राजनीतिक धार्मिक मुद्दे, लेकिन यहां के लोगों ने मजहबी सौहार्द को बरकरार रखा। यहां हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एक-दूसरे के त्यौहार सदियों से आपस में मिलजुल कर मनाते चले आ रहे हैं।

इस सांप्रदायिक एकता को बांदा नवाब अली बहादुर द्वितीय और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने उस समय मजबूत किया था,जब अंग्रेजों से युद्ध के दौरान रानी लक्ष्मीबाई ने बांदा नवाब को राखी भेजकर मदद मांगी थी जिसके बाद बांदा नवाब अली बहादुर द्वितीय अपने हजारों सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई के साथ अंग्रेज़ों से मोर्चा लिया था तथा युद्ध के दौरान रानी के वीरगति प्रदान कर जाने के बाद उनका अंतिम संस्कार भी बांदा नवाब ने किया था।

ब्राम्हण परिवार ने की थी यहाँ मुहर्रम की शुरुआत

शहर के ही इदरीस खान का दावा हैं कि लगभग 270 साल पहले बांदा में मोहर्रम के आयोजन की शुरुआत महाराष्ट्र के पुणे से आये ब्राह्मण परिवार ने की थी जिसमें सबसे पहले रामा जी ने 1750 में इमामबाड़ा बनाकर इसकी शुरुआत की इसके बाद इसी परिवार की महिला लक्ष्मी और उसके परिजन भाऊराम ने एक दूसरा इमामबाड़ा 1765 में स्थापित किया था। तब से लेकर आज तक रामा जी के वंशज मोहर्रम के दस दिन नंगे पैर रहकर जमीन में सोकर और व्रत रखकर इस परंपरा को निभाते चले आ रहे हैं, मौजूदा समय में इस इमामबाड़े का रखरखाव रामा जी के वंशज बंसत राव सांवत करते हैं इस बात की पुष्टि के लिए सैय्यद मोहम्मद इलियास मगरबी की लिखी किताब तारीख़-ए-बुंदेलखंड में लिखे होने का दावा किया जाता है।

रामा जी द्वारा निर्मित इमामबाड़ा

हिन्दू लंगर लुटाते है तो मुस्लिम कन्या भोज कराते हैं

वरिष्ठ पत्रकार बसंत गुप्ता बताते हैं कि जहां मुहर्रम के दौरान बड़ी संख्या में हिंदू लंगर लुटाते हैं। वहीं मुस्लिम वर्ग के लोग भी हिंदुओं के तीज त्यौहार में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं,यहां नवरात्रि के दौरान प्रसिद्ध महेश्वरी देवी मंदिर में हर साल मुस्लिम वर्ग के लोग अष्टमी के दिन कन्या भोज कराते हैं।

शहर के ही बारातीलाल व बुजुर्ग सावित्री देवी बताती हैं कि बदले माहौल में राजनीति ने समाज में जहर घोलने का कार्य रही है लेकिन चुनाव के वक्त नेताओं के उकसावे में लोग बहक जाते हैं। बहुत दिनों से रामा के इमामबाड़े में हिंदू मुस्लिम सबको एक साथ शरीक होते देखा है और खुद शामिल होकर अपने लिए बच्चों के लिए दुआ की है।

  • प्रकाश ओझा (editor)

    प्रकाश ओझा (editor)

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